Thursday, November 19, 2009

वहीं पे जा कर उलझ रहा है, जहां से दामन छुड़ा रहे हैं!
चले थे जिस दर से बेखुदी में, उसी को फिर खट-खटा रहे हैं,

सिमट के चादर में सोने वाले, यूँ पाँव फैलाते जा रहे हैं!
बढ़ी ज़रा आमदन तो अपनी ज़रूरतों को बढ़ा रहे हैं!

तिरी ही बांती, दिया भी तेरा, तिरे ही दम से ये रौशनी है!
तिरी हिफ़ाज़त में ज़िन्दगी के चिराग़ सब झिलमिला रहे हैं!

ये किसकी ज़ुल्फ़ों से चुपके-चुपके निकल के शब मुस्कुरा रही है,
ये हार, ये बालियां हैं किसके,जो आसमाँ को सजा रहे हैं!

बढ़ा के रफ़्तार ज़िन्दगी की, न जाने क्या कर लिया है हासिल,
जुनूने-मन्ज़िल में किसलिये हम, सुकून-ए-हस्ती गवाँ रहे हैं!

वो लम्हे जो कल तलक मिरी ज़िन्दगी को बद्तर बना रहे थे,
ख्यालों में आज आ गये तो,लबों पे मुस्कान ला रहे हैं!

न महफिलें हैं, न सुनने वाले, न अब रही वो सुखन-नवाज़ी!
वो शेर ओ नग़्मे, ग़ज़ल, तराने, किताब में छट-पटा रहे हैं!

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